8. प्रेमचंद की दृष्टि में साहित्य और साहित्यकार का दायित्व ✍ अहमद रजा

शोसा :

            प्रेमचंद एक ऐसे साहित्यकार हैं, जिन्होंने साहित्य और साहित्यकार के परंपरागत मानदंडों को तोड़ा और साहित्य को मनोरंजन की भूल भुलैया से निकालकर यथार्थ की भूमि पर लाकर खड़ा किया। प्रेमचंद अपने युग के सच्चे द्रष्टा थे जिनके साहित्य को पढ़कर ब्रिटिश भारत की समस्त परिस्थितियों का यथार्थ बोध सरलता से हो जाता है। सन् 1936 ईo में प्रगतिशील सम्मेलन के अधिवेशन में अध्यक्ष पद से उन्होंने साहित्य और साहित्यकार के उत्तरदायित्व और उसके उद्देश्य पर प्रकाश डाला था। उन्होंने साहित्य को मानव जीवन की आलोचना माना और साहित्यकार की महत्ता को व्याख्यायित करते हुए कहा कि साहित्य जीवन की भी आलोचना है। चाहे वह निबंध के रूप में हो, चाहे कहानियों के या काव्य के रूप में, उसे हमारे जीवन की आलोचना और व्याख्या करनी चाहिए। साहित्य का साधन सौंदर्य प्रेम है। साहित्यकार में यह वृत्ति (सौंदर्य प्रेम) जितनी ही जाग्रत और सक्रिय होती है, उसकी रचना उतनी ही प्रभावमयी होती है। प्रेमचंद ने इस अधिवेशन में साहित्यकार के दायित्य के बारे में कहा कि वह समाज का यथार्थ चित्र प्रस्तुत करें, साथ ही वह देश और समाज को खण्डित करने वाली विभिन्न व्यवस्थाओं और रूढ़ियों के विरुद्ध जनमत को संगठित भी करें । उनकी दृष्टि में साहित्यकार न केवल समस्याओं को उजागर ही करता है, बल्कि उसके पीछे छिपे कारणों को भी चिन्हित करता हुआ चलता है। प्रेमचंद के विचार में एक शक्तिशाली देश और समाज का निर्माण करना ही साहित्यकार का मुख्य लक्ष्य होता है। प्रेमचंद ने एक अच्छे साहित्यकार की भाँति अपने साहित्य में एक आदर्श समाज को चित्रित करके बाद के साहित्यकारों के लिए एक मानदंड तैयार किया।

बीजशब्द : साहित्य, साहित्यकार, यथार्थवाद, आदर्शवाद, पथ–प्रदर्शक, देशोद्धार, राजनीति, देश–प्रेम

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