शास्त्रीय भाषा असमीया
देखते ही देखते यह वर्ष भी जानेवाला है और इस वर्ष की अनगिनत घटनाओं में साहित्य जगत से जुड़ी एक महत्वपूर्ण घटना है असमीया को शास्त्रीय भाषा का दर्जा दिया जाना।सन् 2004 ई॰ में भारत सरकार ने कुछ सख्त मानदंडों को पूरा करने वाली भारतीय भाषाओं को भारत की शास्त्रीय भाषा का दर्जा देने का निर्णय लिया था। इसी निर्णय के कार्यान्वयन हेतु भारत सरकार द्वारा समिति का गठन किया गया था,जिसने सन् 2004 ई॰ में पहली बार के लिए भारत की शास्त्रीय भाषा के रूप में तमिल को मान्यता दी थी।
भाषाओं को शास्त्रीय भाषा का दर्जा देने के लिए कुछ आधार तय किये गये थे, जिनका समय-समय पर संशोधन होता रहा। इनमें से प्रमुख हैं-शास्त्रीय भाषा के लिए विचार की गयी भाषा के प्रारंभिक ग्रंथों/अभिलिखित इतिहास की अत्यधिक प्राचीनता होना; प्राचीन साहित्य/ ग्रंथों का संग्रह, जिसे वक्ताओं की पीढ़ियों द्वारा एक मूल्यवान विरासत माना जाना; साहित्यिक परंपरा मौलिक हो और किसी अन्य भाषा समुदाय से उधार न ली जाना और शास्त्रीय भाषा और साहित्य आधुनिक से अलग होने के कारण, शास्त्रीय भाषा और उसके बाद के रूपों या उसकी शाखाओं के बीच एक विच्छेदन की संभावना होना। इन्हीं मानदंडों के आधार पर भारत की समय-समय पर कुछ भाषाओं को शास्त्रीय भाषा की स्वीकृति मिली। आज की तारीख में तमिल,संस्कृत,कन्नड़,तेलुगु, मलयालम,उड़िया, असमीया, बांग्ला, मराठी, पालि और प्राकृत भारतवर्ष की शास्त्रीय भाषाएँ हैं।
असमीया भाषा और साहित्य ने विभिन्न स्तरों से गुजरकर वर्तमान की स्थिति प्राप्त की है। संसार की दूसरी भाषाओं की तरह प्रारम्भिक स्तर में मौखिक साहित्य ने असमीया साहित्य की उत्पत्ति और विकास में योगदान दिया। इतिहासकारों ने असमीया साहित्य की रचना शैली, भाषा, विचार, आदर्श, विषयवस्तु आदि का परीक्षण कर इसका काल विभाजन किया है। युग का विभाजन करते समय असमीया साहित्य का पहले लिखित नमूने चर्यापद को अत्यंत महत्वपूर्ण उपलब्धि के रूप में स्वीकार किया गया है। लोगों में बौद्ध धर्म और सिद्धांत के प्रचार एवं प्रसार के लिए तेईस सिद्धाचार्यों ने उपमा,रूपक जैसे अलंकारों के सुंदर संयोजन से चर्यापदों की रचना की थी ।
भारतवर्ष में उचित संरक्षण के अभाव में समय के गर्भ में ग्रन्थों का विलुप्त हो जाने की घटना घटती रही हैं। इसी कारण से चौदहवीं शताब्दी ईसा पूर्व के असमीया साहित्य के लिखित नमूने पर्याप्त मात्रा में नहीं मिलते। लेकिन पंद्रहवीं शताब्दी से श्रीमंत शंकरदेव द्वारा शुरू किये गये वैष्णव आंदोलन के परिणामस्वरूप असमीया लोगों में ग्रन्थों के संरक्षण की प्रवृत्ति पनपी। शंकारोत्तर युग से ही असमीया साहित्य की एक समृद्ध लिखित परंपरा चलने लगी थी,जो आज तक निरंतर चलती आ रही है। हिन्दी साहित्य की तरह असमीया साहित्य में भी आदिकाल,भक्तिकाल और आधुनिक काल मिलते हैं। पर असमीया साहित्य में हिन्दी की तरह रीतिकाल नहीं मिलता, न ही रीतिकालीन साहित्यिक प्रवृत्तियाँ ही यहाँ मिलती हैं। असमीया के आदिकाल का साहित्य मूलतः मौखिक था, पर इस समय कुछ लिखित साहित्य का भी निर्माण हुआ। भक्तिकाल में सुर,तुलसी, कबीर की तरह ही शंकरदेव,माधवदेव आदि ने साहित्य की सेवा की। असमीया के आधुनिक काल में विविधमुखी रचनाएँ आती रहीं। आधुनिक काल में सैकड़ों साहित्यकारों ने असमीया साहित्य को एक अलग मात्रा प्रदान दी। बीरेन्द्र कुमार भट्टाचार्य, मामणि रयछम गोस्वामी, नीलमणि फुकन जैसे ज्ञानपीठ विजयी साहित्यकारों ने कालजयी रचनाएँ लिखीं। इनके अलावा भी कई साहित्यकार साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित हुए। सबके प्रयास से असमीया भाषा आज इस स्तर तक पहुँची है कि सन् 2024 ई॰ को भारत सरकार ने असमीया को शास्त्रीय भाषा की मर्यादा से अलंकृत किया। असमीया भाषा को इस यशस्वी क्षण तक ले आने में जिन साहित्यकारों, संस्थाओं, महानुभावों का अवदान रहा, वे अभिनंदन के पात्र हैं ,वंदन के पात्र हैं। असमीया भाषा के इस गौरव के क्षण में हर एक असमीया को यह प्रण लेने की आवश्यकता है कि सब मिलकर असमीया भाषा एवं साहित्य के उत्तरण में स्वयं को समर्पित करें, इनके संरक्षण एवं संवर्द्धन में अपना योगदान दें। क्योंकि अतीत गौरव गाथा का सु परिणाम वर्तमान को मिलता है, पर यह भविष्य नहीं बदल सकता; वर्तमान की गौरव कृति से ही भविष्य उज्ज्वल हो सकता है। आज असमीया को शास्त्रीय भाषा की मर्यादा मिल जाना इस भाषा-साहित्य प्रति हमारा दायित्व निश्चित होता है। असमीया भाषा का बहुल एवं शुद्ध प्रयोग-विशेषकर वार्तालाप,लेखन एवं मीडिया के संदर्भ में; शिक्षा के माध्यम के रूप में असमीया भाषा का व्यवहार, असमीया भाषा में उन्नत मानदंडों के ग्रन्थों की रचना जैसे व्यावहारिक कदम ही असमीया भाषा के प्रति असमीया भाषा प्रेमियों का दायित्व पालन करना होगा।
डॉ. रीतामणि वैश्य
संपादक
शोध-चिंतन पत्रिका