5. छायावादी काव्य में नारी का स्थान ✍ डॉ॰ रीतामणि वैश्य

छायावाद आधुनिक हिन्दी कविता की उस धारा का नाम है, जो 1918 के आसपास द्विवेदी-युगीन निरस, उपदेशात्मक, इतिवृत्तात्मक और स्थूल आदर्शवादी काव्यधारा के बीच से प्रमुखतः रीतिकालीन काव्य-प्रवृत्ति के विरुद्ध विद्रोह के रूप में प्रवाहित हुई थी। छायावाद कुछ नवीन प्रवृत्तियों के साथ हिन्दी के काव्य जगत में अवतरित होता है। आत्मानुभूति की अभिव्यक्ति, शृंगारिकता, नारी का चित्रण, सौन्दर्य भावना, रहस्य भावना, वेदना और करुणा की अभिव्यक्ति, मानवातावादी दृष्टिकोण, प्रकृति पर चेतना का आरोप, देशप्रेम की भावना, प्रतीकात्मकता, बिम्बात्मकता एवं चित्रात्मकता, गीति शैली आदि छायावाद की मूल प्रवृत्तियाँ रही हैं। कुछ विद्वान छायावाद को पाश्चात्य रोमांटिसिजम  के प्रभाव से विकसित एक काव्यधारा मानते हैं। तो कई इस धारा पर रवीन्द्रनाथ की ‘गीतांजलि’ का प्रभाव मानते हैं। सामान्य मत है कि यह रीतिकालीन उन्मुक्त प्रेम धारा का विकसित रूप है। जो भी हो, रोमांटिसिजम, ‘गीतांजलि’ और रीतिमुक्त काव्याधरा-इन सब काव्यधाराओं में नारी का चित्रण मिलता है। पर यह चित्रण बाहरी है,आंतरिक नहीं। इन काव्यों में नारी के अन्तःकरण को टटोलने का प्रयास नहीं हुआ। छायावाद में भी नारी का वर्णन हुआ है,नारी के विविध रूपों का यहाँ चित्रण मिलता है। पर छायावाद में जिस आत्मानुभूति की अभिव्यक्ति की बात की जाती है,वहाँ नारी मन की अनुभूति की उपेक्षा हुई है। मैथिलीशरण गुप्त के ‘साकेत’ या ‘यशोधरा’ में कवि जिस तरह उन चरित्रों के अन्तर्मन में पैठ गए थे,छायावादी  काव्यधारा में उस चेतना का अभाव मिलता है।  

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