मध्यकालीन अखिल भारतीय भक्ति-आन्दोलन के कर्णधारों में महापुरुष श्रीमन्त शंकरदेव (ई॰ 1449-ई॰ 1568) अन्यतम हैं। एकशरण भागवती वैष्णव धर्म (एकशरण नाम धर्म) के प्रवर्तक-प्रचारक श्रीमन्त शंकरदेव मूलतः श्रीकृष्ण (भगवान् विष्णु) के परम भक्त थे। उन्होंने ‘श्रीमद्भागवत’ में प्रतिपादित– ‘कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्’ – इस तत्व-कथन को शिरोधार्य करते हुए अपने जीवन, कर्म, आदर्श और साहित्य के जरिए दुःखी-तापित जनता के लिए कृष्ण-भक्ति का अमोघ मार्ग प्रशस्त किया।
महापुरुष श्रीमन्त शंकरदेव ने एक साहित्यकार के रूप में काव्य, नाटक, गद्य और गीतों की रचना द्वारा असमीया साहित्य-भण्डार को समृद्ध किया। उनकी अनुपम सृष्टि ‘बरगीत’ उनके कृष्ण-भक्त-हृदय के निचोड़ माने जाते हैं। ये बरगीत शास्त्रीय संगीत के रूप में पूर्वोत्तर भारत ही नहीं, अपितु पुण्यभूमि भारतवर्ष के कोने-कोने में समादृत हैं। स्वनिर्मित ब्रजावली भाषा में शास्त्रीय रागों एवं तालों के सन्निवेश के साथ महापुरुष श्रीमन्त शंकरदेव ने अपने बरगीतों में आराध्य प्रभु श्रीकृष्ण के अलौकिक रूप-सौन्दर्य, गुण-माहात्म्य, लीला-क्रीड़ा, आत्म-समर्पण के भाव तथा संसार के प्रति विरक्ति, अपने खेद-पश्चाताप-दीनता के भावों को काव्यात्मक सरसता के साथ मर्मस्पर्शी रूप में प्रस्तुत किया है। अपने आराध्य प्रभु श्रीकृष्ण के लिए गोपाल, हरि, गोविन्द, राम, यादव, नारायण, माधव, मधाइ, मुरारू, केशव, कमललोचन, गोपिनी-प्राण जैसी आख्याओं का प्रयोग करते हुए अपने को उनका किंकर (दास) कहते हुए वे नहीं थकते – “कृष्ण किंकर, शंकर कह, भज गोविन्दक पाय।” प्रस्तुत शोधालेख में व्याख्यात्मक एवं विश्लेषणात्मक पद्धतियों के माध्यम से विचाराधीन विषय पर समुचित अध्ययन किया गया है।