आदिवासी समाज और विकास
वर्तमान समय में उभरे तमाम विमर्शों में अन्यतम है आदिवासी विमर्श। भारत के कई राज्यों में आदिवासी समुदाय मिलते हैं और ये अच्छी संख्या में मिलते हैं। ओडिशा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, झारखण्ड, अंडमान-निकोबार, सिक्किम, त्रिपुरा, मणिपुर, मिज़ोरम, मेघालय, नागालैंड और असम में आदिवासी बहुसंख्यक हैं; जबकि गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, बिहार, कर्नाटक और पश्चिम बंगाल में यह अल्पसंख्यक हैं। कुल मिलाकर सच्चाई यह है कि भारत की आबादी में आदिवासियों की अच्छी-ख़ासी हिस्सेदारी है।
आदिवासी का समाज गैर-आदिवासी समाज से कई अर्थों में भिन्न होता है। इस समाज के लोग कथित सभ्यता से कुछ दूर होते हैं। बल्कि यह कहना अधिक उचित होगा कि आदिवासियों की अपनी सभ्यता होती है, अपनी संस्कृति होती है, अपनी समाज-व्यवस्था होती है, अपने रीति-रिवाज होते हैं और तमाम विशेषताओं से वे शेष समाज से विशेष होते हैं। उनकी सामूहिकता उन्हें और विशिष्ट बनाती है। वे आधुनिक सुख-सुविधाओं से दूर होते हुए भी अत्यंत खुश रहते हैं। उनके जीवन की अपनी ही मान्यताएँ हैं, जिन्हें वे जीते हैं और जिंदा रखते हैं।
आदिवासी प्रकृति के अभिन्न अंग होते हैं। पशु-पक्षियों के साथ ही वे सूरज के उगते ही उठ जाते हैं, फिर अपनी दिनचर्या का पालन करते हुए सूरज के ढलने के साथ वे भी नींद की गोद में सो जाते हैं। जल,जंगल और जमीन उनके जीवन के आधार होते हैं। वे प्रकृति से और प्रकृति उनसे होती है। वे प्रकृति के एक-एक उपादानों की पूजा करते हैं। वैसे तो आर्य समाज में भी प्रकृति की पूजा करने की प्रवृत्ति अवश्य है,पर आदिवासियों में यह प्रवृत्ति कुछ अधिक देखी जाती है। नदी,पहाड़,पर्वत, पशु,पक्षी सब उनके पूज्य होते हैं। प्रकृति के साथ सहवास करने की आदिम प्रवृत्ति को उसने अभी छोड़ा नहीं है। इसीलिए अभी भी आदिवासी शिशुओं के नाम पशु-पक्षी के रखे जाते हैं। उनमें साँप, नेवला आदि नाम आसानी से मिल जाते हैं। बात अज्ञेय की ‘साँप’ कविता के गूढ़ार्थ की ओर इशारा करती है। साँप जब जंगल से बाहर निकलता है, तभी उसमें जहर उगलने की प्रवृत्ति विकसित होती है। डँसने की चतुरता उसे शहर में मिलती है। जब वह जंगल में रहता है, वह शांत और शील रहता है। इसी से आदिवासी अपने बच्चों के नाम प्यार से साँप रखते हैं। पशु-पक्षियों पर शिशुओं के नाम रखने के इस तर्क के दम को नकारा नहीं जा सकता । यही कारण है कि शेष दुनिया में जब सूअर एक गाली होती है, वहीं आदिवासी समाज में वह सुंदरता का पर्याय होता है। साहित्य में चाँद,तारे,कमल आदि नायिका की सुंदरता के प्रतिमान हैं और आदिवासी समाज की नायिका की चंचलता का प्रतिमान सूअर की चपलता है।
भारत के नागरिक होने के कारण आदिवासी लोगों को भी जीने का और जीने के साधनों के उपयोग करने का उतना ही अधिकार है, जितना गैर-आदिवासियों का है। इक्कीसवीं सदी में भारत दुनिया के अन्य उन्नत देशों के साथ होड़ लगाने की क्षमता रख रहा है। भारत का शहर-शहर, गाँव-गाँव का चप्पा-चप्पा विकास की किरणों से आलोकित होने लगा है । तब क्यों विकास की धारा से आदिवासी वंचित रह जाएँ? आदिवासी समाज का पढ़ा-लिखा नौजवान भी अपने समाज को विकसित रूप में देखना चाहता है और विकास के इस क्रम में वह अपनी भूमिका अदा करना चाहता है।
और विरोधाभास वहीं शुरू होता है। जहाँ आदिवासी बसते हैं, अक्सर वह पिछड़ा हुआ और दुर्गम क्षेत्र होता है। इन क्षेत्रों से कुछ लोग तो निकल जाते हैं, पर जिनसे यह संभव नहीं हो पाता है, वहाँ विकास को उन क्षेत्रों तक अपना रास्ता तय करना पड़ता है। उन क्षेत्रों के विकास की पहली सीढ़ी है सड़क। जब बड़ी-बड़ी सड़कें बनती हैं, गली-गली तक आसानी से वाहन ले जाने के लिए रास्ते बनते हैं, तब बहुत सारे पेड़-पौधे काटने पड़ते हैं,पहाड़ियों के बीच से रास्ते निकालने पड़ते हैं। रेल लाइन ,रेलवे स्टेशन और हवाई अड्डे बनाने पड़ते हैं। स्कूल,कॉलेज, ऑफिस की सैकड़ों बिल्डिंग का निर्माण करना पड़ता है। मोबाइल के टावर बैठाने होते हैं, इन्टरनेट का संयोग करना पड़ता है। इन्हीं सबके चलते शेष दुनिया की सारी प्रवृत्तियाँ आदिवासी समाज में प्रवेश कर जाती हैं। लोगों की रुचि बदलने लगती है और इसका सीधा असर संस्कृति और साहित्य पर पड़ता है।
आज के युग में आदिवासियों का विकास होना चाहिए और हो रहा है। इसके साथ ही इस बात का ध्यान भी रखना चाहिए कि आदिवासी समाज का संरक्षण भी हों। दोनों में तालमेल बनाकर रखना बहुत ही मुश्किल है,पर ऐसा करने का कोई विकल्प भी नहीं है। कम से कम जल,जंगल और जमीन का उपयोग किए बिना विकास की प्रक्रिया चलायी जानी चाहिए। साथ ही आदिवासी मौखिक साहित्य के संरक्षण पर भी ज़ोर देना समय की मांग है।
डॉ. रीतामणि वैश्य
संपादक
शोध-चिंतन पत्रिका
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